देश मे भटकती ट्रेन,कठघरे में सरकार


लेखिका - डा0 शमीम फात्मा (सामाजिक चिंतक) जौनपुर, उत्तर प्रदेश
ट्रेनों का भटकाव जारी कठघरे में कई सवाल
देश के अलग अलग राज्यों से पैदल ही पलायन करने वाले प्रवासी मजदूरों की तस्वीरों ने जब सत्ता पर दबाव बढ़ाया तो लॅाकडाउन के चौथे चरण में श्रमिक स्पेशल ट्रेनों को हरी झंडी दिखाई गई, सरकार के इस कदम से लगा कि अब प्रवासी मजदूरों को पैदल नहीं चलना होगा अब वह आराम से अपने अपने घरों तक पहुँच जाँएगें, लेकिन मजदूरों के जख्मों को भरने की जगह रास्ते से भटकती ट्रेनों ने मजबूर मजदूरों को भूख और प्यास से बेहाल कर नई चोट पहुँचा दी। ट्रेन पर सवार श्रमिकों ने भारतीय रेल की लचर व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी। प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक पहुँचाने वाली श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में लापरवाही इस कद्र हुयी कि 40 से अधिक ट्रेनें अपने रास्ते से ही भटक गई, जहाँ 2 दिन में पहुँचना था वहाँ श्रमिकों को 7-8 दिनों का लंबा सफर तय करना पड़ा। 21 मई को महाराष्ट्र के वसई से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के लिए निकली श्रमिक ट्रेन उड़ीसा के राउरकेला पहुँच गई, फिर मजदूरों को राउरकेला से गोरखपुर का करीब 800 किलोमीटर का सफर फिर तय करना पड़ा.  इसी तरह गुजरात के सूरत से 17 मई को जिस ट्रेन को 2 दिन में चल कर बिहार के सिवान आना था वो ट्रेन 8 दिन बाद 25 मई को सिवान पहुँची। गुजरात के सूरत से ही 2 ट्रेनें सिवान के लिए और निकली लेकिन वो भी उड़ीसा के राउरकेला और बैंग्लोर पहुँच गयी।
रेलवे ने अपनी सफाई में कहा कि रूट बहुत ही व्यस्त था जिसकी वजह से कई ट्रेनों का रूट बदल दिया गया था जिसकी वजह से ये परेशानियाँ सामने आयी लेकिन सवाल महज ट्रेनों के लेट हो जाने का नहीं बल्कि उस ट्रेन में सवार मजदूरों की भूख और प्यास का भी था, दो दिन की यात्रा 4-5 दिनों में तय होना तो अलग बात है लेकिन इस यात्रा के दौरान खाना और पानी के इंतजाम का न होना सवाल खड़े करता है। अहमदाबाद से चलकर दानापुर पहुँची एक श्रमिक स्पेशल ट्रेन में सवार समस्तीपुर के रहने वाले एक यात्री ने बताया कि अहमदाबाद से दानापुर के बीच में सिर्फ एक बार ही पं0 दीनदयाल स्टेशन (मुगलसराय) में खाना पानी दिया गया वो भी कुछ को मिला तो कुछ को नहीं मिला। ट्रेन में सवार सभी यात्री भूख और प्यास से बेहाल हो गए लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई भी नहीं था। ऐसी ही एक तस्वीर उत्तर प्रदेश के कानपुर स्टेशन पर दिखाई दी। शुक्रवार को श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से अलग अलग राज्यों से आए यात्रियों ने बताया कि पैदल चलने वाले तो रास्ते में पेड़ों में लगे फल, हैंडपंप और नदियों का पानी पी लेते हैं लेकिन ट्रेनों में तो हम तड़पते रह गए। यात्रियों ने ये बताया कि खाना एक बार ही मिल रहा है पानी की भी बहुत किल्लत है यहाँ तक कि कुछ यात्रियों ने दावा किया कि उनकी ट्रेन में लोगों ने शौचालय तक का पानी पिया है. 
अब सवाल उठता है कि आखिर इतनी भीषण गर्मी में इतना लंबा रूट क्यों निर्धारित किया गया? जब लाॅकडाउन के दौरान ट्रेन पहले से ही नहीं चल रही थी कुछ स्पेशल ट्रेनों को छोड़कर तो रेल मंत्री ने ट्रैफिक का बहाना क्यों बनाया? इस गर्मी के आलम में ट्रेन में भूख और प्यास से अब तक 9 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और यही हाल रहा तो ये आंकड़ा और बढ़ भी सकता है। रेल से लाश निकलने की कई घटना सामने आ चुकी है लेकिन रेलवे हर बार अपना पत्ता झाड़ कर कहता है कि मौत भूख या प्यास नहीं बल्कि किसी अन्य बीमारी की वजह से हुयी है। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार हो या फिर रेलवे विभाग लेकिन कोई भी इन मौतों की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। क्या ऐसा इसलिए है कि ये श्रमिक ट्रेनें हैं इनके लिए आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं है। रेलवे हो या सरकारें आखिर क्यों सब चुप्पी साधे हुए हैं। देश के नागरिक मूक दर्शक क्यों बने हुए है। भूख और प्यास से जूझता मजदूर जाए तो कहाँ जाए उनके लिए तो एक तरफ कुआँ तो दूसरी तरफ खाई है। सरकार और रेलवे को सफाई पेश करने की जगह व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने की ज़रूरत है वरना ये मजबूर मजदूर कोरोना की बीमारी से तो नहीं बल्कि भूख से मारे जाएंगें, और जिन मजदूरों को भूख और प्यास ने लील लिया है उनके परिवार वालों को आर्थिक रूप से मदद भी पहुँचाई जानी चाहिए जिनकी मौत का जिम्मेदार हमारा लचर सिस्टम है। 

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