ऑनलाइन मजलिस से इस्लामिक मामलों के जानकार एस एम मासूम मोहर्रम की दे रहे अकीदतमंदों को जानकारी

ऑनलाइन मजलिस से इस्लामिक मामलों के जानकार एस एम मासूम मोहर्रम की दे रहे अकीदतमंदों को जानकारी |


प्रतापगढ़ | इस्लामिक मामलों के जानकार ,ज़ाकिर ऐ अहलेबैत एस एम मासूम हर वर्ष मुहर्रम में अपने वतन जौनपुर जाते थे और मजलिसें बहुत से इमामबाड़ों में पढ़ा करते थे |  इस वर्ष कोरोना के कारण वे नहीं जा सके और प्रतापगढ़ में उन्हें रहना पड़ा जहां से उन्होंने पूरे दस दिन ऑनलाइन मजलिसों का सिलसिला ज़ारी रखा | प्रतापगढ़ में  एस एम मासूम अपने मानवता के सदेश के कारण हर धर्म के लोगों में पहचाने जाते  हैं | 


एस एम मासूम ने  बताया कर्बला में इमाम हुसैन की शहादत मानवता की जीत है। मानवता के लिए हजरत इमाम हुसैन व उनके साथी यजीद से जंग करते हुए भूखे प्यासे शहीद हो गए। इंसानियत को बचाने के लिए जालिम बादशाह यजीद की सेना से मासूम बच्चों ऑन मुहम्मद क़ासिम अली असग़र ने भी जंग लड़ी।

मोहर्रम माह का इस्लाम में बड़ा महत्व है। जिले में मोहर्रम पर्व पर ऑनलाइन मजलिसों में इस्लामिक मामलों के जानकार एस एम मासूम ने अकीदतमंदों को मोहर्रम  पे पैग़ाम देते हुए  बताया कि मोहर्रम के महीने की  इस्लाम धर्म में बड़ी अहमियत है। इस महीने रोजा रखना सवाब का काम है। मोहर्रम का चांद देखते ही इमाम हुसैन के चाहने वाले उनकी शहादत को याद करके आंसू बहाते हैं। मजलिस आयोजित करते हैं और ताजिया रखते हैं । हर मुसलमान इमाम हुसैन पर हुए जुल्म को सुन के दुखी रहता है और अपने -अपने तरीके से उनकी कुर्बानियों को याद करता है।

सन् 680 में  पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स० के नाती इमाम हुसैन को ज़ालिम बादशाह यज़ीद की फ़ौज ने उनके परिवार के साथ  इराक के एक सुनसान इलाक़े में घेर के भूखा प्यासा शहीद कर दिया गया और औरतों तथा बच्चों को क़ैदी बना के ज़ुल्म करते यज़ीद के दरबार सीरिया में ले जाया  गया | जिस दिन इमाम हुसैन को उनके परिवार के साथ शहीद किया गया वो मुहर्रम के महीने का दसवां दिन था जिसे आशूरा कहते हैं | शिया मुसलमान इस आशूरा के दिन रोज़ा नहीं रखता और पूरा दिन इमाम हुसैन की शहादत के दुःख में कुछ खाता पीता नहीं और ताज़िया दफन करने बाद ही पानी पीता है | 

मुसलमानो का शिया समुदाय पहली मुहर्रम से शोक सभाएं (मजलिस ) का आयोजन इमामबाड़ों , घरों में करने लगता  हैं और जुलुस अज़ादारी का निकालता है  जिसमे प्रतीक चिन्ह जैसे  अलम, ताज़िया, तुर्बत ,ज़ुल्जिनाह इत्यादि कर्बला को याद करने के लिए शामिल किये जाते  हैं और काले कपडे पहने इमाम हुसैन की शहादत पे आंसू बहाने वाले नौहा मातम करते ,कर्बला की दास्तान वहाँ पे हुए ज़ुल्म को बताते  किसी पास के दूसरे इमामबाड़े या शहर की कर्बला तक ले जाते हैं | इस जुलूसों में इमामबाड़ों में हर धर्म के लोगों का स्वागत हुआ करता है | दस दिनों तक लोग इमामबाड़ों , घरों के आस पास और शहर में घूम घूम  के लोगों को इमाम हुसैन की प्यास को याद करके पानी और शरबत पिलाते है | ये लोग इमाम हुसैन की शहादत से बड़ा कोई ग़म नहीं कहते हुए मुहर्रम का चाँद होते ही दुःख की निशानी काले कपडे पहल लेते हैं औरतें ज़ेवर उतार देती हैं चूड़ियां तोड़ देती है और दो महीने आठ दिन ख़ुशी  का कोई काम  नहीं करते  | 

दस दिनों तक यह सिलसिला चलता रहता है और दस मुहर्रम आशूरा को हर मुसलमान जो अपने अपने तरीके से ताज़िया रखके हुसैन को याद कर  रहा था अपने अपने ताज़िये को  शहर की कर्बला में दफन कर देता है| 

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