सुजानगंज जौनपुर निवासी मशहूर साहित्यकार पवन विजय से एक बात चीत

आज हमारे बीच में प्रसिद्ध लेखक और  समाजशास्त्री  डॉ. पवन विजय मौजूद हैं।  जौनपुर के सुजानगंज क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले डॉ. पवन विजय दिल्ली के आई पी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध  कॉलेज में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं।  समाजशास्त्र पर लिखी आपकी पुस्तकें विभिन्न संस्थानों में पढ़ाई जाति है इसके अलावा आपने  बेस्ट सेलर उपन्यास ‘बोलो गंगापुत्र’ का लेखन किया है।  आपका हालिया उपन्यास ‘फरवरी नोट्स’ लगातार चर्चा में है।  बाल साहित्य पर भी आपकी कलम चली है ।   भाषा, शिक्षा के साथ सामजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर आप लगातार सक्रिय हैं।  प्रस्तुत है डॉ.  पवन विजय के साक्षात्कार का एक अंश।    
 जीवन के शुरूआती दिनों से  लेकर आज तक की यात्रा कैसी रही?
डॉ. पवन विजय :  बचपन गाँव में खेती-किसानी के साथ  पढ़ाई करते बीता। हिंदू इंटर कॉलेज बादशाहपुर से इंटरमीडिएट  करने के बाद  उच्च शिक्षा के लिए कानपुर आया। यहाँ डी।  बी।  एस।  कॉलेज से समाजशास्त्र में स्वर्णपदक के साथ परास्नातक करने के बाद कामकाजी महिलाओं पर शोधकार्य किया। इसके उपरांत उन्नाव के महाप्राण निराला महाविद्यालय में मेरी नियुक्ति प्रवक्ता पद पर हुयी तब से शिक्षण कार्य की यात्रा निरंतर जारी है। वर्तमान समय में डेलही इंस्टिट्यूट ऑफ़ रूरल डेवलपमेंट कॉलेज में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर पद पर कार्यरत हूँ। 
आप समाजशास्त्र पढ़ते पढ़ाते भाषा और साहित्य की ओर कैसे आना   हुआ  ?
डॉ. पवन विजय : साहित्य समाज का दर्पण होता है अतः समाज का अध्ययन करते करते साहित्य में रूचि स्वाभाविक ही है लेकिन आपको बता दूँ कि प्रत्येक व्यक्ति जिसके अंतर्मन में दूसरों के लिए अनुभूति है कहीं न कहीं सर्जना से जुड़ ही जाता है मैंने अपनी पहली कविता कक्षा नौ  में लिखी थी उसके बाद अनुभूतियों को शब्द देता रहा।   लेखन की शुरुआत बड़ी दिलचस्प रही है। मेरी माँ लोक कथाएं सुनाया करतीं थीं उसमे कई कथाएं ऐसी होती थी जिससे मैं सहमत नही होता था। मुझे लगता कि कथा का अंत या कहानी कुछ अलग होती तो कितना अच्छा होता। मैं अपने हिसाब से कहानी बदल देता। यहीं से लेखक बनने की यात्रा शुरू हुई।   लेखन में मेरे लिए संवेदनशीलता महत्वपूर्ण है । आप किसी घटना, भाव, तथ्य, या किसी बात को जितनी  शिद्दत से महसूस कर सकते हैं  उतने ही अच्छे आप लेखक हो सकते हैं। मुझे जीवन और समाज के सभी पहलुओं पर लिखना अच्छा लगता है जो मुझे प्रभावित करते हैं या जिन पर मुझे लगता है कि मेरा अमुक विषय पर कुछ  कहना जरूरी है। जहाँ तक लेखन यात्रा का सवाल है तो अकादमिक लेखन से लेकर साहित्यिक लेखन तक एक लम्बी यात्रा है जो विगत सत्रह सालों से चल रही है। तमाम खट्टे मीठे अनुभव हुए पर किताबों पर जब लोगों का प्यार मिलता है तो लगता है यात्रा सफल है। 
समाजशास्त्र में आपकी पुस्तकें विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाई जाती हैं।   समाजशास्त्र के विषय वस्तु भारत के संदर्भ में कैसे तैयार करते हैं? 
डॉ. पवन विजय : समाजशास्त्र का विषयवस्तु बनाना बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है। भारत में समाजशास्त्र के नाम पर भारत से बाहर के सामजिक संबंधों, संरचनाओं, प्रकार्यों को ही पढ़ाया जाता रहा है। भारत के भी समाजशास्त्री बाहर का ही उपागम, पद्धति का सहारा लेते रहे। अरस्तू, प्लेटो के साथ कौटिल्य, मनु, याज्ञवल्क्य और बृहस्पति इत्यादि को पाठ्यक्रम में शामिल करवाना उपनिवेशवादी मानसिकता से लड़ना है जो कि आज भी अकादमिक जगत में एक दुष्कर कार्य है फिर भी मेरा अपना प्रयास है कि पाठ्यक्रम समेकित हो एकांगी नही।   
समाजशास्त्री के रूप में आज समाज की गति कैसे देखते हैं? 
डॉ. पवन विजय :वर्तमान समाज में ध्वंस की प्रक्रिया तीव्र है। इस ध्वंसवाद से घबराने की आवश्यकता नही है। इसी ध्वंस पर ही नये सर्जन होंगे। ऐसा मै इसलिए भी कह सकता हूँ क्योंकि मैं यह देख सकता हूँ कि ध्वंस से पहले सकारात्मक  विकल्प के बीज शोध लिए गये हैं। संघर्ष का एक प्रकार्यात्मक पहलू होता है समाज उसी रास्ते पर है। 
 
भविष्य की क्या योजनायें हैं ?
डॉ. पवन विजय :सामाजिक व्यवहारों को मापने की एक सही विधि की खोज पर काम कर रहा हूँ इसके अलावा भारतीय ग्रंथों के पुनर्पाठ को लेकर भी कुछ योजनायें हैं। अपनी भाषा हिंदी अवधी की समृद्धता पर काम करने के साथ साथ अपनी माटी जौनपुर के लिए भी कुछ करने की हसरत है. बनारस और प्रयाग के बीच जौनपुर की पहचान कुछ धुंधली सी हो गयी है जबकि इसका इतिहास और अवस्थिति अद्भुत रही है. जौनपुर को पहचान मिले, इस  दिशा में काम श्री सैयद मासूम और डॉ. मनोज मिश्र  ने जारी रखा है. इसे और विस्तार देना है.   

आज के युवाओं से क्या कहेंगे 
डॉ. पवन विजय : युवाओं से एक ही बात कहनी है कि किसी विचार के अनुयायी  बनने से बेहतर है उसको  अपडेट करें क्योंकि कोई भी बात सौ प्रतिशत अनुपालित नही की जा सकती है। सच हमेशा  देश, काल परिस्थितियों  के अनुसार होता है। आप किसी के जैसे नही बन सकते क्योंकि आपके हाथ पर खींची गयी  रेखा दुनिया के किसी और हाथ पर न खींची गयी और न ही खींची जायेगी। अतः स्वयं को परम्परा से जोड़कर, परम्पराओं को   नवीन करते हुए सनातन बनिए। यह सनातन साहित्य से लेकर विज्ञान तक में झलके तो आपके रचनाकर्म, ज्ञान, शक्ति की महत्ता है।
Dr. Pawan K. Mishra
Associate Professor of Sociology 
Delhi  Institute of Rural Development
New Delhi. 

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