शहीद स्थल पर साल में दो बार किया जाता है ध्वजारोहण

चन्दवक, जौनपुर। शिराजे-हिंद जौनपुर की धरती का ऐतिहासिक इतिहास समृद्धशाली और गौरवपूर्ण रहा है। यहां की मिट्टी में ऐसे अनगिनत कर्मयोगियों और शूरमाओं ने जन्म लिया जिन्होंने शिक्षा का दीप प्रज्ज्वलित कर उत्तम शिक्षा के नए आयाम स्थापित किए और स्वाधीनता आंदोलन में क्रांति की मशाल जलाकर देश को गौरवान्वित किया। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अंकित 8 अगस्त 1942 यानी 79 साल पहले जब दुनिया जबरदस्त बदलाव के दौर से गुजर रही थी। पश्चिम में द्वितीय विश्व युद्ध लगातार जारी था और पूर्व में साम्राज्य के खिलाफ आंदोलन तेज हो रहा था, उस समय भारत महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आजादी के सपनों का ताना-बाना बुना जा रहा था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन का बिगुल बजते ही देश की जनता नई क्रांति की इबादत लिखने को बेताब हो उठी। क्रांति की इस लड़ाई में जौनपुर जिले के तहसील केराकत के शूरवीरों ने भी भारत माँ को आजाद कराने के लिए भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े। अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों और संघर्ष से केराकत के शूरवीरों ने अंग्रेजो के खिलाफ जबरदस्त हमला किया और अंग्रेजी हुकूमत को नाको चने चबाने को मजबूर कर दिए। अंग्रेजी हुकूमत की दमनकारी नीति क्रांतिकारियों का यह आंदोलन नागवार गुजरा। क्रांतिकारियों के लगातार हमले से खफा अंग्रेजी हुकूमत ने क्रांतिकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी। इस गोलीकांड में जौनपुर के विभिन्न क्षेत्रों के 11 वीर योद्धाओं ने अपनी आहूति दी और शहीद होकर इतिहास के पन्नो में अपना नाम अमर कर गए। इन अमर शहीदों की याद में केराकत नगर के नार्मल मैदान में शहीद स्मारक की स्थापना की गई है जिस पर लगे शिलापट्ट पर जनोहर सिंह हैदरपुर बक्सा (धनियामऊ गोलीकांड), राम अघोर सिंह, राम महिपाल सिंह, राम निहोर कहार, नंदलाल (अधौरा गोलीकांड) महावीर सिंह, विजेंद्र सिंह, माता प्रसाद शुक्ल (मछलीशहर गोलीकांड) राम दुलार सिंह, रामानन्द (अमरौरा गोलीकांड) व राधुराई (बक्सा) शहीदों के नाम अंकित हैं। भारत छोड़ो आंदोलन में अपना बलिदान देने वाले इन शूरवीरों के नाम जिस शिलापट्ट पर अंकित है वह आज की तारीख में जीर्ण-शीर्ण हो चुका है। उस पर लिखे गए शहीदों के नाम लगभग मिट चुके हैं जो पठनीय भी नहीं हैं। जिन क्रान्तिकारियों ने देश के लिए खुद को समर्पित किया आज उनके बलिदान को जीर्ण शीर्ण शिलापट्ट पर अंकित होकर अपमानित होना पड़ रहा है। शहीद स्तम्भ की स्थिति को देखकर मन-मस्तिष्क में एक ही प्रश्न बार-बार कौंधता है कि देश के लिए शहीद होने वाले वीर सपूतों को आजाद देश द्वारा इसी तरह का सम्मान और स्थान मिलता है? नार्मल मैदान की ऐतिहासिक इतिहास की बात करें तो यहां प्रति वर्ष आयोजित स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान शहीद स्तम्भ उपजिलाधिकारी द्वारा ध्वजारोहण अन्य अधिकारियों व कर्मचारियों की मौजूदगी में किया जाता है। नार्मल के मैदान पर  केराकत के उपजिलाधिकारी प्रति वर्ष दो बार ध्वजारोहण कर अपनी देशभक्ति का छद्दम प्रमाण पत्र प्रस्तुत करते हैं लेकिन शहीदों के अपमान पर उनका कर्तव्य दिशाहीन हो जाता है। उपजिलाधिकारी की निगाहें तिरंगा फहराने के लिए तो उठती हैं लेकिन जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़े शहीद स्मारक और उस पर मिट चुके शहीदों के नाम की तरफ उनका ध्यान आकृष्ट नहीं होता। यह संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए बेहद शर्मनाक है। स्थानीय प्रशासन को यह सोचना चाहिए कि आखिर ऐतिहासिक धरोहरों को संजोकर रखने का उत्तरदायित्व किसका है? यहां एक महत्त्वपूर्ण बात का उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक है। इसी नार्मल मैदान पर पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की याद में प्रति वर्ष 7 जनवरी से 14 जनवरी तक राज्यस्तरीय फुटबाल प्रतियोगिता का भी आयोजन किया जाता है। कोरोना काल के पूर्व आयोजित इस प्रतियोगिता में चौधरी चरण सिंह जी के पौत्र और वर्तमान में राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी ने भी शिरकत की थी लेकिन किसी का ध्यान शहीद स्मारक पर लिखे मिट चुके नाम की ओर आकर्षित नहीं होता। आखिर कब तक अपने ही देश में शहीद के परिजनों को अपने शहीद पिता, भाई, पति और बेटे की शहादत के लिए अपमान सहना पड़ेगा? का दंश झेलना पड़ेगा? सामाजिक संगठनों द्वारा इस संवेदनशील मामले पर जनांदोलन कर सरकार और स्थानीय प्रशासन पर दबाव बनाने की आवश्यकता है। नार्मल मैदान पर स्थित शहीद स्मारक का जीर्णोद्धार कर उसका कायाकल्प करना ही शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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