विलुप्त हो रही टक—टक की आवाज़ वाली टाइपराइटर मशीन

विलुप्त हो रही टक—टक की आवाज़ वाली टाइपराइटर मशीन
ग्राफ भले ही कम हुआ हो लेकिन खत्म नहीं है जो कभी भी नहीं होगा: शरद जायसवाल
जौनपुर। आज टाइपराइटर मशीन का नाम कान में पहुंचने पर जहां लोगों के आंखों के सामने पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं, वहीं नयी पीढ़ी में चर्चा होने लगी है कि यह कौन सी मशीन है? फिलहाल बता दें कि यही वह मशीन है जो 90 के दशक तक सरकारी एवं गैरसरकारी संस्थानों में बहुत महत्व रखती थी। सारे कागजात इसी मशीन से होकर अधिकारी के पास पहुंचते थे। इस मशीन को चलाने वाला टाइपिस्ट या टाइपराइटर अर्थात टंकण करने वाले टंकणक की उस समय बहुत अहमियत होती थी। लोग काम निकलवाने के लिये उन्हें टाइप बाबू कहते थे। यही मशीन 90 के दशक तक बहुत महत्वपूर्ण बड़ी मशीन हुआ करती थी।
बता दें कि लगभग हर संस्था या कार्यालय में टाइपराइटर मशीन का नजर आना उस संस्था और कार्यालय की शोभा और अहमियत को दर्शाता था। उस समय के छात्र—छात्राएं मैट्रिक की परीक्षा देने के साथ ही महाविद्यालय मंत जाने से पहले टाइप सीखना शुरू कर देते थे। हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं की मशीन अलग—अलग होती थी। अंग्रेजी टाइप करना आसान होता था, इसलिए 75 फीसद छात्र—छात्राएं अंग्रेजी सीखते थे और 25 फीसद ही हिन्दी टाइप सीखते थे। उस समय इस मशीन को जो सबसे ज्यादा स्पीड में चलाता था, वह उस दौर का हीरो हुआ करता था। हिन्दी में प्रति मिनट 25 शब्द एवं अंग्रेजी में प्रति मिनट 30 शब्द टाइप करने वाला प्राइवेट की बात तो दूर, सरकारी कार्यालयों में सेट हो जाता था।
इस  मैनुअल टाइपराइटर मशीन से बहुत सारे सीखने वाले लोग डिजाइन बनाकर भी टाइप कर लेते थे। मशीन में उस समय ईमोजी टाइप शब्द हुआ करते थे जिसे बनाना पड़ता था। विशेषकर टाइपिस्ट की उस दौर में कोर्ट—कचहरी में बहुत मांग होती थी। खासकर जो शॉर्ट हैण्ड जानता था, उस टाइपिस्ट की भर्ती जज, मजिस्ट्रेट आदि महत्वपूर्ण अधिकारी के सहायक के रूप में होती थी।
हालांकि टाइपराइटर की टाइपिंग उतनी अच्छी नहीं होती थी, इसलिये उसी दौर में इलेक्ट्रॉनिक टाइपराइटर मशीन आयी जिसमें बहुत ही शानदार व सुन्दर टाइप हुआ करती थी लेकिन काफी महंगी होने के कारण बाजार नहीं पकड़ सकी। इसी बीच उसी दशक में कम्प्यूटर का प्रादुर्भाव हुआ। देखते ही देखते यह टक—टक की आवाज़ वाली टाइपराइटर बहुत तेजी से विलुप्त होने लगी लेकिन यह कहना गलत होगा कि आज खत्म हो गयी है, क्योंकि आज कम्प्यूटर पर अंगुली रखने के पहले इसी टाइपराइटर मशीन पर हाथ रखना पड़ता है। आज हर जगह टाइपराइटर के स्थान पर कम्प्यूटर के की-बोर्ड ने जगह ले रखी है लेकिन पूर्व की अपेक्षा आज कम जरूर मगर कुछेक टाइप सेण्टर संचालक पुरानी स्मृति एवं धरोहर की भांति टाइप सेण्टर अवश्य चला रहे हैं।
इस बाबत पूछे जाने पर नगर के अटाला मस्जिद के पास संचालित उषा टाइप राइटिंग इन्स्टीच्यूट के संचालक शरद जायसवाल ने बताया कि कम्प्यूटर की टाइप महंगी होने के कारण अभी भी सस्ते टाइप के लिये कलेक्ट्रेट, कचहरी सहित एकाध जगह पर एक—दो मशीन अवश्य दिख रही हैं जिसे वृद्ध लोग ही चला रहे होते हैं। उन्होंने बताया कि उनके पिता स्व. मदन लाल जायसवाल के जमाने में जौनपुर मुख्यालय सहित सभी तहसीलों में कई दर्जन टाइप सेण्टर चल रहे थे लेकिन अब मेरे अलावा एकाध जगह ही इस तरह के सेण्टर संचालित हैं। श्री जायसवाल ने बताया कि टाइपराइटर मशीन का ग्राफ भले ही कम हुआ हो लेकिन खत्म नहीं हुआ है जो कभी भी खत्म नहीं होगा, क्योंकि अगर ऐसा होता तो मेरे सेण्टर पर छात्र—छात्राओं का आना बन्द हो गया होता। प्रत्येक माह दो दर्जन से अधिक प्रवेश होता रहता है।

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